
आदिगुरु शंकराचार्य जी की जीवनी
भारत की धरती पर जन्म लेने वाले महापुरुषों में आदिगुरु शंकराचार्य जी का स्थान सर्वोपरि है। वे न केवल एक महान संत और दार्शनिक थे, बल्कि सनातन धर्म के पुनरुद्धारकर्ता भी माने जाते हैं। इस लेख में हम आदिगुरु शंकराचार्य जी के जीवन से जुडी समस्त कथा एवं उनके योगदान, उपदेश, यात्राएँ और उनके द्वारा स्थापित मठों के बारे में विश्तार से जानेगे ।
आदिगुरु शंकराचार्य जी जीवन से जुडी मुख्य जानकारी
जन्म: 788 ई. (कुछ स्रोतों के अनुसार 509 ई.), केरल के कालड़ी गाँव में
पिता: शिवगुरु
माता: आर्यम्बा
वर्ण : नंबूदरी ब्राह्मण
धर्म: सनातन धर्म (हिंदू धर्म)
बचपन से ही शंकराचार्य जी विलक्षण बुद्धि के धनी थे। मात्र 8 वर्ष की आयु में उन्होंने वेद, उपनिषद और शास्त्रों का गहन अध्ययन करके सभी को कंठस्त कर लिया था। उन्होंने अपने जीवनकाल में सम्पूर्ण भारत वर्ष की यात्रा की थी और भारत समेत कई देशो से आये ज्ञानियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया वाकई में वे ज्ञान के भंडार थे। जिस समय उनका जन्म हुआ उस वक्त भारत में तीजी से बौद्ध और जैन पंथ का प्रभाव बढ़ रहा था। उस वक्त के कई राजा बौद्ध व जैन पंथ को अपनाकर अपना क्षत्रिय धर्म भूल कर अहिंसा को अपना रहे थे वही दूसरी ओर अरब और पश्चिमी देशों में इस्लाम व ईसाई पंथ का उदय हो चुका था। जिसके कारन भारत के पश्चिमी भाग पर आक्रमण का खतरा बढ़ता जा रहा था साथ ही साथ हिन्दू धर्म में भी वैष्णव व शैव समुदाय के बीच गतिरोध उत्त्पन हो रहा था।
ऐसे में राष्ट्र को क ऐसे महानायक की जरूरत थी जो न सिर्फ भारत को अखंड रख सके बल्कि सम्पूर्ण समाज को को एक जुट कर सके। आदि गुरु शंकराचार्य ऐसे ही एक महा पुरुष थे जिन्होंने न सिर्फ अपने ज्ञान से इस भारत भूमि की रक्षा की बल्कि सम्पूर्ण समाज को जोड़ने का कार्य किया उनके इसी ज्ञान के कारन उन्हें आदिगुरु की उपाधि दी गयी। लोगो के संज्ञान के लिए बता दे की आदिगुरु की उपाधि इससे पहले सिर्फ भगवान कृष्ण और भगवान शिव को मिली थी। उन्होंने सम्पूर्ण भारत में कई पवित्र मंदिरों का निर्माण भी करवाया जिनमे हिन्दुओं के चार धाम भी जिनमे रामेश्वरम , द्वारिका , बद्रीनाथ , जन्गनाथ पूरी में की। इन चार धामों की स्थापना का मुख्य उद्देश्य हिन्दू समाज को उनकी मातृभूमि भारत की सही स्थिति का स्मरण कराना था। ताकि हिन्दुओं को ये हमेशा याद रहे की उनका देश कहा है।
आदिगुरु शंकराचार्य जी द्वारा किये गए प्रमुख कार्य
- संन्यास और ज्ञान की खोज:- 8 वर्ष की आयु में शंकराचार्य जी ने संन्यास ग्रहण किया और गुरु **गोविंद भगवतपाद** से दीक्षा ली। उन्होंने पूरे भारत की यात्रा की और विभिन्न मठों की स्थापना कर सनातन धर्म को एकीकृत किया।
- अद्वैत वेदांत का प्रचार:- उन्होंने “अद्वैत वेदांत” की स्थापना की, जिसके अनुसार “ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है” और आत्मा तथा परमात्मा एक ही हैं।
- धार्मिक बहसों के माध्यम से जागरण:- शंकराचार्य जी ने बौद्ध, जैन और अन्य दर्शनों के विद्वानों से शास्त्रार्थ कर वेदांत की श्रेष्ठता को सिद्ध किया।
- चार मठों की स्थापना:- उन्होंने भारत के चार कोनों में मठ स्थापित किए:
स्थान | मठ का नाम | वर्तमान राज्य |
---|---|---|
उत्तर | ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) | उत्तराखंड |
दक्षिण | शृंगेरी मठ | कर्नाटक |
पूर्व | गोवर्धन मठ | ओडिशा |
पश्चिम | शारदा मठ | गुजरात (द्वारका) |
शंकराचार्य जी की प्रमुख रचनाएँ
- विवेक चूड़ामणि
- वेदात सार
- ब्रह्मसूत्र भाष्य
- भगवद गीता पर भाष्य
- उपनिषदों पर भाष्य
इनकी रचनाएँ आज भी वेदांत दर्शन के अध्ययन में मूल आधार मानी जाती हैं।
आदिगुरु शंकराचार्य जी की शिक्षाए
- आत्मा और परमात्मा में भेद नहीं है।
- जीवन का अंतिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है।
- भक्ति, ज्ञान और ध्यान के मार्ग से ही सच्चा कल्याण संभव है।
- अंधविश्वासों से ऊपर उठकर आत्मचिंतन जरूरी है।
शंकराचार्य जी की मृत्यु
33 वर्ष की आयु में, शंकराचार्य जी ने केदारनाथ में अपना शरीर त्याग दिया। कुछ मान्यताओं के अनुसार उनकी समाधि वहीं स्थित है।
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