सुविचार

सुविचार हमें सही मार्ग पर चलने, आत्मविश्वास बढ़ाने और कठिनाइयों का सामना करने के लिए प्रेरित करते हैं। यह सामाजिक, मानसिक, और आत्मिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण होते हैं।

सफलता आमतौर पर उन लोगों को मिलती है जो इसे पाने के लिए बहुत व्यस्त होते हैं


हर चीज का का समाधान आपके अंदर है बस उसे अच्छे से जानने की ज़रूरत है।


महानता कभी ना गिरने में नहीं है, बल्कि हर बार गिरकर उठ जाने में है.


कड़ी मेहनत के लिए कोई विकल्प नहीं है।


एक व्यक्ति ने कभी गलती नहीं की, जब उसने कभी भी कुछ नया करने की कोशिश नहीं की यानी जब हम कुछ नया करते है तभी गलतियां होना स्वाभाविक है।


एक हज़ार मील सफलता की यात्रा की शुरुआत भी एक कदम से ही होती है।


उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
अर्थात, मनुष्य को स्वयं अपना उद्धार करना चाहिए और अपने मन को गिरने नहीं देना चाहिए, क्योंकि आत्मा ही अपना मित्र है और आत्मा ही अपना शत्रु।


॥धीरज धरम मित्र अरु नारी। आपद काल परखिए चारी॥
धैर्य (धीरज), धर्म (धरम), मित्र (दोस्त) और नारी (पत्नी) — इन चारों की असली पहचान संकट (आपत्ति) के समय होती है।


महि भजंहि तें नारि पुरूष। सफल जीवन जग मझ पग धरूष।।
जो स्त्री-पुरुष राम का भजन करते हैं, वही इस संसार में सफल जीवन बिताते हैं।


राम नाम की महिमा न्यारी। हरै पाप दुख दुर्व्यवहारी॥
राम नाम की महिमा अनोखी है, यह पाप, दुःख और लोगो के बुरे आचरण को नष्ट कर देती है।


राम को जासु रहे उर माहीं। सो नर जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
जिसके हृदय में राम बसते हैं, उसके लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता।


राम भजन बिनु सब सूना। बिनु जल कमल जैसे बिनु पूना।।
राम भजन के बिना जीवन शून्य है — जैसे जल के बिना कमल मुरझा जाता है, या बिना वायु के जीवित रहना कठिन होता है।


अमानित्वम् अदम्भित्वम् अहिंसा क्षान्तिरार्जवम् | आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ||
विनम्रता (अमानित्व), दम्भरहित होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, शुद्धता, स्थिरता और आत्म-संयम - ये सब ज्ञान के अंग हैं।


नवीन नीच के अति दुखदाई, जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई। भयदायक खल के प्रिय बानी, जिमि अकाल के कुसुम भवानी।।
नीच (दुष्ट )व्यक्ति का झुकना भी दुखदायी होता है, जैसे अंकुश, धनुष, सांप और बिल्ली का झुकना। दुष्ट की मीठी वाणी भी भयदायक होती है, जैसे बिना मौसम के फूल।


भवानी शंकरौ वन्दे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति, सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥
मैं माता भवानी (पार्वती) और भगवान शंकर (शिव) की वंदना करता हूँ, जो श्रद्धा और विश्वास का स्वरूप हैं। जिनके बिना (श्रद्धा और विश्वास के बिना) सिद्ध पुरुष भी अपने ह्रदय में स्थित ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकते।


योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
भगवान श्री कृष्ण कहते हे अर्जुन! तू योग में स्थिर होकर, आसक्ति को त्यागकर, निष्काम भाव से अपने कर्तव्यों को करों । सफलता और असफलता को समान समझ। यही समता को 'योग' कहा जाता है।


भजहु राम मन हरषि उर धारा। सकल सिद्धि कर मूल विचारा॥
अपने मन में आनंदपूर्वक श्रीराम का भजन करो और उन्हें हृदय में धारण करो। क्यूंकि श्रीराम का स्मरण ही सभी सिद्धियों का मूल है।


सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेउ मुनिनाथ। हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥
हे भरत! सुनो, भविष्य (भाग्य) बहुत बलवान होता है। मनुष्य चाहे कितना भी प्रयास कर ले, परंतु कई बार नियति के आगे उसे झुकना ही पड़ता है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश — ये सब विधाता (भगवान) के हाथ में होते हैं। मनुष्य इन पर नियंत्रण नहीं रख सकता


हिय निर्गुण नयनन्हि सगुण, रसनाँ नाम सुआमा। मनहुँ पुटत संपूट लसत तुलसी ललित ललामा।।
श्रद्धा, विश्वास और भक्ति का यही तो आधार है – सगुण और निर्गुण का सुंदर समन्वय। जहाँ आँखों में भगवान का रूप और हृदय में उनका नाम बसता है, वहीं जीवन को मिलती है सच्ची शांति और श्रेष्ठता।


अहम् आत्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि "मैं ही वह परम आत्मा हूँ जो हर जीव के भीतर वास करती है।" वे यह भी कहते हैं कि सभी प्राणियों की सृष्टि का आरंभ मुझसे होता है, उनका पालन-पोषण भी मेरे द्वारा होता है, और अंत में सबका विलय भी मुझमें ही होता है।


निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः। द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैः गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥
जो लोग अहंकार और मोह से रहित हैं, संग-दोष को जीत चुके हैं, आत्मा में स्थिर हैं, कामनाओं से मुक्त हैं और सुख-दुख जैसे द्वंद्वों से ऊपर उठ चुके हैं, वे लोग ही अविनाशी परमपद को प्राप्त करते हैं।


| शरणागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। || ते नर पाँवर पापमय तिनहि बिलोकत हानि ||
जो व्यक्ति अपने अहित (नुकसान) की आशंका करके किसी शरणागत (शरण में आए हुए) को त्याग देता है, वह व्यक्ति नीच और पापी होता है। ऐसे व्यक्ति का दर्शन करना भी नुकसानदायक होता है।


हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम से प्रकट होई मैं जाना।
भगवान श्रीराम हर कण में व्याप्त हैं, पर वे प्रकट होते हैं केवल प्रेम और भक्ति से। प्रेम और आस्था ही है वह मार्ग जिससे प्रभु को पाया जा सकता है।


यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥
जो व्यक्ति न तो संसार से विचलित होता है और न ही जिससे संसार विचलित होता है, जो हर्ष (खुशी), अमर्ष (क्रोध), भय और उद्वेग (चिंता) से मुक्त है — वह मेरा परमप्रिय भक्त है।


विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥
श्रद्धावान, संयमित इंद्रियों वाला और तपस्वी पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। जब वह ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तब वह शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त कर लेता है।






